Thursday, March 1, 2007

आत्मकथ्य

बचपन से ही मुझमें अध्यात्म के प्रति तीव्र जिज्ञासा रही तदर्थ मैंने विभिन्न धर्मग्रंथों का अध्ययन किया। साहित्य के अध्यापक के रूप में कोई चालीस वर्षों तक शिक्षा जगत से जुड़ा रहा। जीवन के उत्तरार्ध में विभिन्न ध्यान-धारणाओं का निचोड़ 'सनातन दोहे' में सृजित हुआ है जिसे नैवेद्य रूप में मनीषी पाठकवृंद के मध्य परोसते हुए आत्मतुष्टि हो रही है। इस सृजन के लिए परमात्मा का अहोभाव के साथ शाश्‍वत सुमिरन!

बचपन से ही राजा भोज विचारवान थे। उनके अनुसार 'मानव को नित्य ही देखना चाहिए कि आज मैंने कौन-सा पुण्य कार्य किया है क्योंकि सूर्य उसकी आयु का एक हिस्सा लेकर ही अस्त होगा। नित्य ही आयु क्षीण हो रही है। कल करने का काम हो तो आज कर लो और पिछले पहर करने का हो तो पहले पहर में कर लो क्योंकि मृत्यु यह नहीं देखेगी कि तुमने कितना काम कर लिया है और कितना बाकी है।'

सारी उम्र मंदिर-मस्जि‍द-गुरुद्वारों में भटकते हुए बीत जाती है पर शान्ति नहीं मिलती, वह (परमेश्‍वर) नहीं मिलता, क्यों?

अध्यात्म के तीन मार्ग कहे जाते हैं- 1. कर्म, 2. ज्ञान और 3. भक्ति। ये तीनों ही मार्ग नहीं हैं, ये व्यस्तता के साधन हैं। भक्ति मार्ग के नाम पर क्रिया-कलाप ठीक नहीं। ज्ञान मार्ग में शास्‍त्र, शस्त्र में रूपान्तरित हो जाते हैं, अशान्ति बढ़ जाती है। कर्म मार्ग : लोगों के द्वारा सारे उपद्रव अति कर्म के कारण होता है- यह करो, वह करो। वस्तुत: कर्म तो हो ही रहा है, इसमें कर्ताभाव बाधक है।

कबीर कहते हैं- 'आतम ज्ञान बिना सब सूना!'
अपने भीतर चलें, अपने भीतर डूबें, अध्यात्म का मार्ग अपने भीतर है। मुझे हर समय अन्य सब दिखाई पड़ते हैं, एक बस मैं दिखाई नहीं पड़ता हूं। मन द्वार है, मंदिर है। द्वार से अंदर जाया जा सकता है, बाहर निकला जा सकता है। मन ही हमें अंतर्मुखी या बहिर्मुखी बनाता है। अंतर्मुखी बनें। आत्म-स्मरण से भरें।

स्वयं में प्रभु-दर्शन : ध्यान
अन्य में प्रभु-दर्शन : प्रेम
सबमें प्रभु-दर्शन : ज्ञान

सस्नेह,
विनीत,
एल.‍ के. दास

1 comment:

Unknown said...

very very good.We can learn from these dohe.