Thursday, March 8, 2007

जैसी श्रद्धा-सोच हो, वैसे होते काम

होती पावन आत्मा, जब होते सत्कर्म ।
पुण्य सनातन है यही, और पाप दुष्‍कर्म ।।

When there is a virtuous action, the soul becomes pure. It is the eternal virtue whereas vice is the sin.

कोई न चाहे मृत्यु को, सब चाहे दुख-मुक्ति ।
अत: अहिंसा-दया से, सदा रहे अनुरक्ति ।।

Nobody likes death. Everybody wishes to be free from sorrow. Therefore, there should be always attachment with non-violence and compassion.

मानव पुतला भाव का, 'मन' विचार का नाम ।
जैसी श्रद्धा-सोच हो, वैसे होते काम ।।

Man is the image of imotion. According to faith and thought his work is completed.

जिससे होती प्रार्थना, उससे हो संबंध ।
बिन संबंध न प्रार्थना, ना कोई अनुबंध ।।

To whom we offer the prayer, there must be some relationship with him. There is neither the prayer nor and connection without the relationship.

प्रभु से है संबंध-पथ, निश्‍छल पावन भक्ति ।
मौन-प्रार्थना जीभ बिन, हृदय-भाव अनुरक्ति ।।

The link with the Lord is simple and holy devotion. There should be silent prayer without tongue with cordial affection.

जीवन ही तो समय है, और समय ही प्राण ।
दोनों की गतिशीलता, दोनों की पहचान ।।

Life is the time and time is the breath. Mobility is the identity of both the time and life.

गया समय आता नहीं, जीवन जाता बीत
समय प्रतीक्षा करे क्यों, बीता समय अतीत ।।

Life ends but the time which passed by never returns back. Why will the time wait for? The passed time is the ever past.


क्रमश:... contd...

Thursday, March 1, 2007

सबमें सबकी आत्‍मा, सबमें सबका योग

जोड़े जो तोड़े वही, निपट अकेली जान।
चिर वियोग के मध्य ही, योग-रुदन-मुस्कान।।

One who joins us in relationship only He breaks up the very relation. Life is quite individual. In fact we are alone in our aloneness. In the midst of ever parting there is a union, weeping or a smile.

जो कुछ मिलता जगत में, रहे न कुछ भी शेष।
सदा चाह की दौड़ में, मिलता केवल क्लेश।।

Whatever we get in the world, nothing remains. we get only misery in the race of desires.

सभी दुखों का मूल है, तेरा-मेरा द्वैत।
सभी सुखों का सार है, शुद्ध बोध अद्वैत।।

The root of all troubles is the duality of thine and mine. The essence of happiness is the perfect perception of unduality.

सबमें सबकी आत्मा, सबमें सबका योग।
द्वैत भाव के कारणे, अलग-थलग सब लोग।।

The soul is interrelated and similarly the co-operation among the people. But people are aloof due to dual sentiment.

प्रेम मिटाये द्वैत को, प्रेम श्रेष्‍ठ प्रभु रूप।
प्रेम, मित्रता, प्रमुदिता, संत स्वभाव स्वरूप।।

Love removes the duel feeling. It is next to God. Love, friendship and bliss are the mixed identity of a Saint.

'होनी' ही तो हो रही, द्रष्‍टा साक्षी मौन।
कर्ता केवल ईश है, और दूसरा कौन??

What is to be happen is already happening. We are just like spectators. A spectator is the silent witness. God is the real doer. Who other else?

परमेश्‍वर के संग हम, जब होते संयुक्त।
आशा तृष्‍णा, चाह से, हो जाते हैं मुक्त।।

When we are attached with God, we are free from dependence, desire and demand.


क्रमश:... cont...

आत्मकथ्य

बचपन से ही मुझमें अध्यात्म के प्रति तीव्र जिज्ञासा रही तदर्थ मैंने विभिन्न धर्मग्रंथों का अध्ययन किया। साहित्य के अध्यापक के रूप में कोई चालीस वर्षों तक शिक्षा जगत से जुड़ा रहा। जीवन के उत्तरार्ध में विभिन्न ध्यान-धारणाओं का निचोड़ 'सनातन दोहे' में सृजित हुआ है जिसे नैवेद्य रूप में मनीषी पाठकवृंद के मध्य परोसते हुए आत्मतुष्टि हो रही है। इस सृजन के लिए परमात्मा का अहोभाव के साथ शाश्‍वत सुमिरन!

बचपन से ही राजा भोज विचारवान थे। उनके अनुसार 'मानव को नित्य ही देखना चाहिए कि आज मैंने कौन-सा पुण्य कार्य किया है क्योंकि सूर्य उसकी आयु का एक हिस्सा लेकर ही अस्त होगा। नित्य ही आयु क्षीण हो रही है। कल करने का काम हो तो आज कर लो और पिछले पहर करने का हो तो पहले पहर में कर लो क्योंकि मृत्यु यह नहीं देखेगी कि तुमने कितना काम कर लिया है और कितना बाकी है।'

सारी उम्र मंदिर-मस्जि‍द-गुरुद्वारों में भटकते हुए बीत जाती है पर शान्ति नहीं मिलती, वह (परमेश्‍वर) नहीं मिलता, क्यों?

अध्यात्म के तीन मार्ग कहे जाते हैं- 1. कर्म, 2. ज्ञान और 3. भक्ति। ये तीनों ही मार्ग नहीं हैं, ये व्यस्तता के साधन हैं। भक्ति मार्ग के नाम पर क्रिया-कलाप ठीक नहीं। ज्ञान मार्ग में शास्‍त्र, शस्त्र में रूपान्तरित हो जाते हैं, अशान्ति बढ़ जाती है। कर्म मार्ग : लोगों के द्वारा सारे उपद्रव अति कर्म के कारण होता है- यह करो, वह करो। वस्तुत: कर्म तो हो ही रहा है, इसमें कर्ताभाव बाधक है।

कबीर कहते हैं- 'आतम ज्ञान बिना सब सूना!'
अपने भीतर चलें, अपने भीतर डूबें, अध्यात्म का मार्ग अपने भीतर है। मुझे हर समय अन्य सब दिखाई पड़ते हैं, एक बस मैं दिखाई नहीं पड़ता हूं। मन द्वार है, मंदिर है। द्वार से अंदर जाया जा सकता है, बाहर निकला जा सकता है। मन ही हमें अंतर्मुखी या बहिर्मुखी बनाता है। अंतर्मुखी बनें। आत्म-स्मरण से भरें।

स्वयं में प्रभु-दर्शन : ध्यान
अन्य में प्रभु-दर्शन : प्रेम
सबमें प्रभु-दर्शन : ज्ञान

सस्नेह,
विनीत,
एल.‍ के. दास